गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

कत्यूरी राज वंश पाल सूर्यवंशी

 त्युर_राजवंश (पाल सूर्यवंशी ) आज आपको उत्तराखंड के सबसे पुराने राजवंश से अवगत करवाते है । उत्तराखंड पर आज तक कत्यूरियो के अतिरिक्त कोई भी राजवंश एकछत्र राज नही कर पाया चाहे गढ़वाल का परमार राजवंश हो या चंद राजवंश । उत्तराखंड का सबसे पुराना राजवंश है । कत्यूरियो के राज स्थापना के बारे मैं अलग अलग राय है ईसा के 2500 पूर्व से 7वी सदी तक इनका शासन एक छत्र रहा । उसके बाद चंद राजाओं ने इनके शासन का अंत किया । इनकी राजधानी अस्कोट है कहा जाता है एक समय वह अस्सी कोट थे इस वजह से अस्कोट नाम भी पड़ा जो अब भी पिथोरागढ़ जिले में है । कत्युरी प्राचीन सूर्यवंशी राजपूत माने जाते है शालिवाहन देव इनके मूल पुरुष है जो अयोध्या से आकर यहाँ अपना साम्राज्य बनाया । इनके राज्य का विस्तार पूर्व में सिक्किम से पश्चिम में काबुल तक था बंगाल में मिले शिलालेखो इनके शिलालेखों से मिलते है जिस से इनके राज्य के विस्तार के संभावना बनती है । कुछ शिलालेख बिहार के मुंगेर और भागलपुर से भी मिले है जो वैसे ही है जैसे शिलालेख कत्यूरियो के है एकमात्र सूर्य मंदिर जो उत्तराखंड में है वो कत्युरी राजाओ का ही बनाया हुआ है इसके आलावा अस्कोट का किला भी इन्होने ही बनवाया और भी कई किलो का निर्माण कराया नौले बनवाए शिव मंदिर बनवाये । इस से राज्य विस्तार की उड़ीसा और बिहार तक होने की सम्भावनाये है । इसमें कोई संदेह नही की ये प्रतापी राजा हुए है । 13वी शताब्दी में इनकी एक शाखा भारी सेना लेकर नए राज्य स्थापना को अलखदेव और तिलकदेव के नेतृतव में गोंडा बस्ती गोरखपुर की और आई और अपना नया राज्य बसाया जो की महासु स्टेट के नाम से आज भी स्थित है जो की बस्ती जिला उत्तरप्रदेश में है । चन्द राजाओ के आअने के बाद इनका राज्य छिन भिन्न हो गया कई जगहों से चंदो ने इनको निकाल भगाया कई जगहों पर ये चंदो के अधीन छोटे मोटे जमींदार या प्रशासक बन गये । राजघराने के लोग अब रजबार कहलाते है रजबार मल्ल ,शाही,बम,मनराल, कड़ाकोटि,कैंतुरा गुसाई आदि शाखाओ में बंट गये शाही --अर्जुनदेव के वंशज । चोकोट के रजबार -किशनदेव के वंशज । मनराल -लाडदेव के वंशज । डोटी के मल्ल - नागमल्ल के वंशज । कुछ लोग गुसाई पदवी का प्रयोग सरनेम की तरह करते है । चोकोट में इनकी कुलदेवी का मन्दिर है कुछ लोग मनिला देवी को भी इनकी कुलदेवी कहते है जो सल्ट पट्टी अल्मोड़ा मे है । 


कत्यूरी शासन

 कत्यूरी राजाओं की राजधानी पहले जोशीमठ थी बाद में कार्तिकेयपुर। उस समय कहा जाता है, कि उनका साम्राज्य सिक्किम से लेकर काबुल तक था। दिल्ली रोहिलखंड आदि प्रांत में भी कत्यूरी राज्य शासन की सीमा के अंदर आते थे।  इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी इसका अपनी पुस्तक में जिक्र किया है। कत्युरी क्षेत्र ने प्रसिद्धि चंद राजाओं के काल में पाई। महाभारत में यह लिखा है, कि जब युधिष्ठिर महाराज ने अपने प्रतापी भाई भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव को विजय के लिए भेजा तो उस समय उनका युद्ध यहां पर कई जाति के क्षत्रियों से हुआ था। और वे लोग राजसूय यज्ञ में नजराना लेकर गए थे। कत्यूरी सम्राट शालिवाहन:- लगभग 3000 वर्ष पूर्व शालिवाहन नामक राजा कुमाऊँ में आए। वे कत्यूरियों के मूल पुरुष थे। पहले उनकी राजधानी जोशीमठ के आसपास थी।  राजा शालिवाहन अयोध्या के सूर्यवंशी राजपूत थे। अस्कोट जो कि वर्तमान में पिथौरागढ़ में स्थित है, खानदान के राजबार लोग, उनके वंशज है, कहते हैं कि वह अयोध्या से आए थे और कत्यूर में बसे।  कत्युरी राजा कार्तिकेयपुर से गढ़वाल का भी शासन करते थे। बद्री दत्त पाण्डेय के अनुसार ''ये राजा शालिवाहन इतिहास प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट न थे, क्योंकि सारे भारतवर्ष के सम्राट अपनी राजधानी कत्यूर या जोशीमठ में रखें यह बात समझ में नहीं आ सकती। हां यह जगह उनके गर्मियों में रहने की हो यह बात तो संभव है पर उस समय जब की मार्ग की सुगमता नहीं थी ऐसा करना खिलवाड़ न था। इससे यह बात साफ जाहिर होती है कि अयोध्या के सूर्यवंशी के कोई राजा शालिवाहन यहां आए और उन्होंने यहां एक अच्छा प्रभावशाली साम्राज्य स्थापित किया''। इतिहासकार फरिश्ता की बातें : फरिश्ता नामक फारसी इतिहासकार एक स्थल में यह लिखता है कि कुमाऊं के राजा पुरु ने बहुत सेना एकत्रित की और दिल्ली पर चढ़ाई की। वहां के राजा दिल्लू को हराकर 4 या 40 वर्ष के राज्य के बाद वह सम्राट बन गए और दिल्लू को रोहतास के किले में बंद कर दिया।  सब लोग कहते हैं कि राजा पुरु ने सिकंदर का मुकाबला सिंधु नदी के किनारे किया और वह वह मारा गया। उसने करीब वहां पर 73 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकार कनिंघम कहते हैं कि कुमाऊं के राजा पुरु कि राजा दिल्ली दिल्ली को मारने की बात यदि सत्य माने तो फ़रिश्ते की दी हुई जो वंशावली है वह ठीक नहीं लगती क्योंकि उसमें पुरू के भतीजे जूना को सेल्युकस निकेटर का समकक्षी न बताकर और अर्दशीर बाबेकन का सहयोगी बताया गया है। कत्यूरियों की राजधानी : इतिहासकार कनिंघम के अनुसार कत्यूरी राजाओं की राजधानी लखनपुर या विराटपतन थी जो राम गंगा नदी के किनारे स्थित है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी पुस्तक में ब्रह्मपुर व लखनपुर का जिक्र किया है। वह लिखते हैं कि बौद्ध एवं ब्राम्हण दोनों मत के लोग वहाँ रहते थे, कुछ लोग विद्या व्यसनी थे और बाकी लोग खेती करते थे। संभव है कि यह राजधानी कत्यूरियों की रही हो। ब्रह्म व लखनपुर तो वास्तव में राज्य और राजधानी के नाम है। डोडी अस्कोट व पाली के कत्युरी राजाओं की वंशावली में आसंतीदेव व वासंती देव के नाम आए हैं। तामाढौन  के पास सारंग देव का मंदिर है इसमें सन 1420 ईस्वी खुदा हुआ है। आसंतीदेव व वासंती देव इनसे नौ पुस्त पहले हुए हैं। लखनपुर का छठी शताब्दी में बसना संभव है कुछ लोग लखनपुर का जोहार क्षेत्र में होना कहते है। क्योंकि एक स्थल में इसका गोरी नदी में होना कहा गया है।एक लखनपुर अल्मोड़ा के पास भी है पर इतिहासकार श्री कनिंघम ने जो नक्शा ब्रम्हपुर को लखनपुर का दिया है उससे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मपुरराज्य कुमाऊं में था और लखनपुर उसकी राजधानी रामगंगा नदी के किनारे थी, जो पाली पछाऊँ में है।  जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानी:  अंग्रेजी लेखकों का अनुमान है कि कत्युरी राजा आदि में जोशीमठ में रहते थे। वहां से वे कत्यूर आए। उनके जाड़ों में रहने की जगह ढकोली थी। वह बाद में चंद राजा भी जाड़ों में  यहीं रहने लगे। कुछ समय पश्चात उन्होंने कोटा व अन्य स्थानों में अपने महल बनाए। सातवीं शताब्दी तक यहां बुद्ध धर्म का प्रचार था क्योंकि ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में लिखा है गोविषाण (वर्तमान-काशीपुर) तथा ब्रह्मपुर(जिसे की लखनपुर के नाम से जाना जाता है) दोनों में बौद्ध लोग रहते थे। कहीं कहीं सनातनी भी थे। मंदिर वह मठ साथ-साथ थे। पर आठवीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य के धार्मिक दिग्विजय से यहां  बौद्ध धर्म का ह्वास हो गया। नेपाल व कुमाऊं दोनों देशों में शंकर गए और सब जगह मंदिरों से बौद्ध मार्गी पुजारियों को निकालकर सनातनी पंडित वहां नियुक्त किए। बद्रीनारायण, केदारनाथ व जागेश्वर के पुजारियों को भी उन्होंने ही बदला। बौद्धों के बदले दक्षिण के पंडित बुलाए गए।  कत्यूरी राजा भी ऐसा अनुमान है कि शंकर के आने के पूर्व बौद्ध थे और बाद में सनातनी हो गए। शंकर के समय में जोशीमठ वे में होने बताए जाते हैं। कत्यूर व कार्तिकेयपुर में वे जोशीमठ से आए। कुमाऊं के तमाम सूर्यवंशी ठाकुर व रजवार लोग अपने को इसी कत्यूरी खानदान का होना कहते हैं।  जोशीमठ में वासुदेव नाम का प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि यह कत्यूरियों की मूल पुरुष वासुदेव ने बनवाया है । इससे प्राचीन मंदिर कुमाऊं में कोई नहीं है। ऐसा कहा जाता है कत्यूरी सम्राट का नाम इस मंदिर में इस प्रकार खुदा है "श्री वासुदेव गिरिराज चक्र चूड़ामणि"। यह सम्राट जोशीमठ में रहते थे। भगवान विष्णु का नाम वासुदेव है। अतः इन्होंने भगवान से अपना नाम मिलता देख उस मंदिर के साथ संकर्षण, प्रद्युम्न अनिरुद्ध, प्रभृति देवताओं के मंदिर भी बनवाए। यह बात प्रायः निर्विवाद है, कि कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्किम से काबुल तक तथा दक्षिण में बिजनौर, दिल्ली, रोहिलखंड आदि प्रांतों में था। फरिश्ता, कनिंघम, शेरिंग, एटकिंसन आदि इतिहासकारों का भी यही मत है

अयोध्या से सूर्यवंश शासन की समाप्ति

 रोहतासगढ़ किले से सम्बन्धित 12 वीं सदी से पहले का कोई शिलालेख तो नहीं मिलाता, लेकिन विभिन्न इतिहासकारों के मुताबिक इस किले पर कभी कछवाह क्षत्रिय वंश का शासन था और इसी वंश के रोहिताश्व ने इस किले का निर्माण करवाया था। रोहिताश्व के नाम पर इस किले का नाम रोहतासगढ़ पड़ा। इतिहासकार देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ- 219 पर लिखते है- ‘‘सूर्यवंश में अयोध्या का अंतिम शासक सुमित्र था। जिसे लगभग 470 ई.पूर्व मगध देश के प्रसिद्ध शासक अजातशत्रु ने परास्त करके अयोध्या पर अधिकार कर लिया। अयोध्या पर शासन समाप्त होने के बाद सुमित्र का बड़ा पुत्र विश्वराज पंजाब की ओर चले गए छोटा पुत्र कूरम अयोध्या क्षेत्र में ही  रहे इसी के नाम से इसके वंशज कूरम कहलाये। बाद में कूरम ही कछवाह कहलाने लगे। इसी वंश का महीराज मगध के शासक महापद्म से युद्ध करते हुए मारा गया था। मगध के कमजोर पड़ने पर कूरम के वंशजों ने रोहितास पर अधिकार कर लिया। रोहितास का प्रसिद्ध किला इन्हीं कूरम शासकों का बनवाया हुआ है।’’ कर्नल टॉड लिखते हैं कि ‘‘महाराजा कुश के कई पीढ़ी बाद उसी के किसी वंशधर ने शोणनद (सोन नदी) के किनारे रोहतास नामक दुर्ग का निर्माण कराया था।’’

बांकीदास की ख्यात में लिखा है- ‘‘कछवाह रो राज थेटू पूरब में रोहितासगढ़, उठा सूं नरवर बासिया।’’ कर्नल टॉड कृत राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास, भाग-3, पृष्ठ 59 पर लिखा है- ‘‘कछवाह या कछुवा जाति वाले अपनी उत्पत्ति राम के द्वितीय पुत्र कोसल नरेश कुश से मानते है। उनकी राजधानी अयोध्या थी। कुश और उनके पुत्रों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पैतृक स्थान छोड़कर अन्यत्र चले गए थे और उन्होंने रोहिताश्व-रोहतास का प्रसिद्ध दुर्ग बनवाया था। ‘‘राजस्थान के विख्यात और प्रथम इतिहासकार नैणसी ने अपनी पुस्तक नैणसी री ख्यात, भाग-2, पृष्ठ 23 पर कछवाह राजवंश की वंशावली में उदृत किया है- ‘‘राजा हरिचंद त्रिशंकु का, राणी तारादे कुंवर रोहितास, रोहितासगढ़ बसाया।’’

किले में लिखा एक शिलालेख, जो 1169 का है, से पता चलता है कि जपिला के खैरवालवंशी प्रताप धवल ने रोहतासगढ़ तक एक सड़क का निर्माण कराया था। 1223 के लाल दरवाजे के पास मिले शिलालेख में प्रताप धवल के वंशजों का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि 12 वीं व 13 वीं सदी में यह गढ़ प्रताप धवल के वंशजों के अधिकार में था। यही नहीं 16 वीं सदी में शेरशाह सूरी द्वारा यह किला हिन्दू राजा से धोखे द्वारा लिए जाने तक इस पर हिन्दू राजाओं का अधिपत्य रहा। दीनानाथ दूबे के अनुसार 16 वीं सदी में शेरशाह सूरी के अधीन होने पर उसके विश्वस्त सेनापति हैबत खान ने 1543 में तीन गुम्बद वाली जामी मस्जिद का निर्माण कराया, जिसके पास एक मकबरा भी है। अकबर के बादशाह बनने व बंगाल व बिहार पर उसका अधिपत्य के होने बाद यह किला मुगल साम्राज्य के पूर्वी सूबे सदर मुकाम बना। आमेर के राजा मानसिंह जब यहाँ के सूबेदार बने तो इस किले का भाग्य फिरा और इसने अपना खाया वैभव पुनः प्राप्त किया। राजा मानसिंह के पूर्वज कछवाहों द्वारा निर्मित होने के कारण राजा मानसिंह को इस किले से बेहद लगाव था। साथ ही किले के सामरिक महत्त्वपूर्ण को देखते हुए राजा मानसिंह ने इस किले को अपना मुख्यालय बनाया और किले की मरम्मत कराने के साथ ही अपनी शान के अनुरूप यहाँ कई महल, मंदिर आदि बनवाये। अकबर के शासन में इस दुर्ग में डेढ़ लाख से ऊपर सैनिक और 4550 घुड़सवारों का रिसाला रखा जाता था।

शाहजादा खुर्रम ने, जो बाद में शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना, नूरजहाँ के षड़यंत्रो से व्यथित होकर 1621 में अपने पिता जहाँगीर के खिलाफ बगावत की और इस काल में अपनी बेगम मुमताज-महल के साथ रोहतासगढ़ में शरण ली थी। औरंगजेब के काल में यह किला एक तरह से यातना शिविर में बदल गया था। 1736 तक यह किला नबाब मीर कासिम के हाथ में रहा, पर अंग्रेजों के साथ बक्सर की लड़ाई हारने पर मीर कासिम भाग गया और किले पर अंग्रेजी प्रभुत्व कायम हुआ। अग्रेजी प्रभुत्व में इस दुर्ग को सर्वाधिक नुकसान ब्रिटिश सैनिकों ने पहुँचाया।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान रोहतासगढ़ स्वतंत्रता सेनानियों का केंद्र रहा। स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए यहाँ अपनी हार से बौखलाए अंग्रेजों ने इस किले को तहस नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किले के चारों का और का घना जंगल भी अंग्रेजों ने कटवा दिया। तब यह किला वीरान पड़ा है।

शालिवाहन देव महाराज माही राज के पुत्र रहे होंगे जो कार्तिकेय पुर चले गए होंगे कत्यूरी राजवंश की स्थापना किया महाराज महीराज महापदम नंद से हारे थे

सुमित्र को अजातशत्रु ने हराया था


पुराणों में अयोध्या (क) सूर्यवंश अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी है। इस राजवंश में विचित्रता यह है कि और जितने राजवंश भारत में हुये उनमें यह सबसे लम्बा है। आगे जो वंशावली दी हुई है उसमें १२३ राजाओं के नाम हैं जिनमें से ९३ ने महाभारत से पहिले और ३० ने उसके पीछे राज्य किया। जब उत्तर भारत के प्रत्येक राज्य पर शकों, पह्नवों और काम्बोजों के आक्रमण हुये और पश्चिमोत्तर और मध्य देश के सारे राज्य परास्त हो चुके थे तब भी कोशल थोड़ी ही देर के लिये दब गया था और फिर संभल गया। कोई राजवंश न इतना बड़ा रहा न अटूट क्रम से स्थिर रहा जैसा कि सूर्यवंश रहा है और न किसी की वंशावली ऐसी पूर्ण है, न इतनी आदर के साथ मानी जाती है। प्रसिद्ध विद्वान पाजिटर साहेब का मत है कि पूर्व में पड़े रहने से कोशलराज उन विपत्तियों से बचा रहा जो पश्चिम के राज्यों पर पड़ी थीं। हमारा विचार यह है कि सैकड़ों बरस तक कोशल के शासन करनेवाले लगातार ऐसे शक्तिशाली थे कि बाहरी आक्रमणकारियों को उनकी ओर बढ़ने का साहस नहीं हुआ और इसी से उनकी राजधानी का नाम "अयोध्या" या अजेय पड़ गया। पूर्व में रहने अथवा युद्ध के योग्य अच्छी स्थिति से उनका देश नहीं बचा। महाभारत ऐसा सर्वनाशी युद्ध हुआ जिससे भारत की समृद्धि, ज्ञान, सभ्यता अदि सब नष्ट हो गये और उसके पीछे भारत में अन्धकार छा गया । सब के साथ सूर्यवंश की भी अवनति होने लगी और जब महापद्मनन्द के राज में या उसके कुछ पहिले क्रान्ति हुई तो कोशल शिशुनाक राज्य के अन्तर्गत हो गया । महाभारत में भी कोशलराज ने [ ६३ ]पुराणों में अयोध्या अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के योग्य कोई काम नहीं कर दिखाया जिसका कारण कदाचित् यही हो सकता है कि जरासन्ध से कुछ दब गया था। बेण्टली साहेब ने ग्रहमंजरी के अनुसार जो गणना की है उससे इस वंश का प्रारम्भ ई० पू० २२०४ में होना निकलता है । मनु सूर्यवंश और चन्द्रवंश दोनों के मूल-पुरुष थे। सूर्यवंश उनके पुत्र इक्ष्वाकु से चला और चन्द्रवंश उनकी बेटी इला से । मनु ने अयोध्या नगर बसाया और कोशल की सीमा नियत करके इक्ष्वाकु को दे दिया । ३८वाकु उत्तर भारत के अधिकांश का स्वामी था क्योंकि उसके एक पुत्र निमि ने विदेह जाकर मिथिलाराज स्थापित किया दूसरे दिष्ट या नेदिष्ट ने गण्डक नदी पर विशाला राजधानी बनाई। प्रसिद्ध इतिहासकार डंकर ने महाभारत की चार तारीस्त्रं मानी हैं, ई० पू० १३००, ई० पू० ११७५, ई० पू० १२०० और ई० पू० १४१८, परन्तु पार्जिटर उनसे सहमत नहीं हैं और कहते हैं कि महाभारत का समय ई० पू० १००० है । उनका कहना है कि अयुष, नहुष और ययाति के नाम ऋग्वेद में आये हैं; ये ई० पू० २३०० से पहिले के नहीं हो सकते । रायल एशियाटिक सोसाइटी के ई० १९१० के जर्नल में जो नामावली दी है उनके अनुसार चन्द्रवंश का अयुष, सूर्यवंश के शशाद का समकालीन हो सकता है और ययाति अनेनस् का । पार्जिटर महाशय का अनुमान बेण्टली के अनुमान से मिलता जुलता है। परन्तु महाभारत का समय अब तक निश्चित नहीं हुआ। राय बहादुर श्रीशचन्द्र विद्यार्णव ने “डेट अव महाभारत वार" (Date of Maha. bharata War) शीर्षक लेख में इस प्रश्न पर विचार किया है और उनका अनुमान यह है कि महाभारत ईसा से उन्नीस सौ बरस पहिले हुआ था। अब हम सूर्यवंशी राजाओं के माम गिनाकर उनमें जो प्रसिद्ध हुये उनका संक्षिप्त वृत्तान्त लिखते हैं। [ ६४ ]अयोध्या के सूर्यवंशी राजा (महाभारत से पहिले) १ मनु २ इक्ष्वाकु ३ शशाद ४ ककुत्स्थ ५ अनेनस ६ पृथु ७ विश्वगाश्व ९ युवनाश्व श्म १० श्रावस्त १२ कुवलयाश्व १३ रढ़ाश्व १४ प्रमोद १५ हर्यश्व १म १६ निकुम्म १७ संहताश्व १८ कृशाश्व १९ प्रसेनजित २० युवनाश्व २य २१ मान्धात [ ६५ ]अयोध्या के सूर्यवंशो राजा २२ पुरुकुत्स * २३ त्रसदस्यु २४ सम्भूत २५ अनरण्य २६ पृषदश्व २७ हर्यश्व २य २८ वसुमनस् २९ तृधन्वन् ३० चैयारुण ३१ त्रिशंकु ३२ हरिश्चन्द्र ३३ रोहित ३४ हरित ३५ चंचु (चंप, भागवत के अनुसार) ३६ विजय ३८ वृक ३९ बाहु ४० सगर ४१ असमञ्जस ४२ अंशुमत् ४३ दिलीप श्म ४४ भगीरथ ४५ श्रुत


विरुणुपुराण के अनुसार मान्धात का बेटा अंबरीष था उसका पुत्र हारीत


हुआ जिससे हारीता गिरस नाम पत्रियकुल चला । ९ [ ६६ ]अयोध्या का इतिहास ४६ नाभाग ४७ अम्बरीष ४८ सिंधुद्वीप ४९ अयुतायुस् ५० ऋतुपर्ण ५१ सर्वकाम ५२ सुदास ५३ कल्माषपाद ५४ अश्मक ५५ मूलक ५६ शतरथ ५७ वृद्धशर्मन् ५८ विश्वसह १म ५९ दिलीप २ य ६० दीर्घबाहु ६२ अज ६३ दशरथ ६४ श्रीरामचन्द्र ६५ कुश ६६ अतिथि ६७ निषध ६८ नल ६९ नभस् ७० पुण्डरीक ७१ क्षेमधन्वन [ ६७ ]EL अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ७२ देवानीक ७३ अहीनगु ७४ पारिपात्र ७६ शल ७७ उक्थ ७८ वजनाभ ७९ शंखन ८० व्युषिताश्व ८१ विश्वसह २य ८२ हिरण्यनाभ ८३ पुष्य ८४ ध्रुवसन्धि ८५ सुदर्शन ८६ अग्निवर्ण ८७ शीघ्र ८८ मरु ८९ प्रथुश्रुत ९. सुसन्धि ९१ अमर्ष ९२ महाश्वत ९३ विश्रुतवत् ९४ बृहद्वल *


इसे अभिमन्यु ने मारा था ( महाभारत द्रोणपर्व )। [ ६८ ]महाभारत के पीछे के सूर्यवंशी राजा १ बृहत्क्षय २ उरुक्षय ३ वत्सद्रोह ( या वत्सव्यूह) ४ प्रतिव्योम ५ दिवाकर ६ सहदेव ७ ध्रुवाश्व ( या वृहदश्व ) ८ भानुरथ ९ प्रतीताश्व ( या प्रतीपाश्व) १० सुप्रतीप ११ मरुदेव ( या सहदेव) १२ सुनक्षत्र १३ किन्नराव (या पुष्कर) १४ अन्तरिक्ष १५ सुषेण ( या सुपर्ण या सुवर्ण या सुतपस्) १६ सुमित्र (या अमित्रजित् ) १७ बृहद्रज (भ्राज या भारद्वाज) १८ धर्म ( या वीर्यवान् ) १९ कृतञ्जय २० बात २१ रगञ्जय २२ सय [ ६९ ]महाभारत के पीछे के सूर्यवंशी राजा २३ शाक्य २४ क्रुद्धोद्धन या शुद्धोदन २५ सिद्धार्थ २६ राहुल (या रातुल, बाहुल) लांगल या पुष्कल) २७ प्रसेनजित (या सेनजित ) २८ क्षुद्रक (या विरुधक) २९ कुलक ( तुलिक, कुन्दक, कुडव, रणक) ३० सुरथ ३१ सुमित्र



रघुवंशी का अर्थ

 रघुवंशी का अर्थ है रघु के वंशज। अयोध्या (कोसल देश) के सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु के वंश में राजा रघु हुये। राजा रघु एक महान राजा थे। इनके नाम पर इस वंश का नाम रघुवंश पड़ा तथा इस वंश के वंशजों को रघुवंशी कहा जाने लगा। बौद्ध काल तक रघुवंशियों को इक्ष्वाकु, रघुवंशी तथा सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा जाता था। जो सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश, ककुत्स्थ वंश व रघुवंश नाम से जाना जाता है। आदिकाल में ब्रह्मा जी ने भगवान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु को पृथ्वी का प्रथम राजा बनाया था। भगवान सूर्य के पुत्र होने के कारण मनु जी सूर्यवंशी कहलाये तथा इनसे चला यह वंश सूर्यवंश कहलाया। अयोध्या के सूर्यवंश में आगे चल कर प्रतापी राजा रघु हुये। राजा रघु से यह वंश रघुवंश कहलाया। इस वंश मे इक्ष्वाकु, ककुत्स्थ, हरिश्चंद्र, मांधाता, सगर, भगीरथ, अंबरीष, दिलीप, रघु, दशरथ, राम जैसे प्रतापी राजा हुये हैं।

सूर्यवंश

मत्स्य पुराण में उल्ले‍ख है कि सत्यव्रत नाम के राजा एक दिन कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उस समय उनकी अंजुलि में एक छोटी सी मछली आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी में डाल दिया तो मछली ने कहा कि इस जल में बड़े जीव जंतु मुझे खा जाएंगे। यह सुनकर राजा ने मछली को फिर जल से निकाल लिया और अपने कमंडल में रख लिया और आश्रम ले आए। रात भर में वह मछली बढ़ गई। तब राजा ने उसे बड़े मटके में डाल दिया। मटके में भी वह बढ़ गई तो उसे तालाब में डाल दिया अंत में सत्यव्रत ने जान लिया कि यह कोई मामूली मछली नहीं जरूर इसमें कुछ बात है तब उन्होंने ले जाकर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालते समय मछली ने कहा कि समुद्र में मगर रहते हैं वहां मत छोड़िए, लेकिन राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि आप मुझे कोई मामूली मछली नहीं जान पड़ती है आपका आकार तो अप्रत्याशित तेजी से बढ़ रहा है बताएं कि आप कौन हैं।तब मछली रूप में भगवान विष्णु ने प्रकट होकर कहा कि आज से सातवें दिन प्रलय (अधिक वर्षा से) के कारण पृथ्वी समुद्र में डूब जाएगी। तब मेरी प्रेरणा से तुम एक बहुत बड़ी नौका बनाओ औ जब प्रलय शुरू हो तो तुम सप्त ऋषियों सहित सभी प्राणियों को लेकर उस नौका में बैठ जाना तथा सभी अनाज उसी में रख लेना। अन्य छोटे बड़े बीज भी रख लेना। नाव पर बैठ कर लहराते महासागर में विचरण करना। प्रचंड आंधी के कारण नौका डगमगा जाएगी। तब मैं इसी रूप में आ जाऊंगा। तब वासुकि नाग द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र में खींचता रहूंगा। उस समय जो तुम प्रश्न करोगे मैं उत्तर दूंगा। इतना कह मछली गायब हो गई। राजा तपस्या करने लगे। मछली का बताया हुआ समय आ गया। वर्षा होने लगी। समुद्र उमड़ने लगा। तभी राजा ऋषियों, अन्न, बीजों को लेकर नौका में बैठ गए। और फिर भगवान रूपी वही मछली दिखाई दी। उसके सींग में नाव बांध दी गई और मछली से पृथ्वी और जीवों को बचाने की स्तुति करने लगे। मछली रूपी विष्णु ने उसे आत्मतत्व का उपदेश दिया। मछली रूपी विष्णु ने अंत में नौका को हिमालय की चोटी से बांध दिया। नाव में ही बैठे-बैठे प्रलय का अंत हो गया। यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान या वैवस्वत (सूर्य) के पुत्रा श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए। वही वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए। महाभारत में सूर्य वंश (hindu suryavanshi) की वंशावली मिलती है। वैवस्वत मनु से सूर्य वंश की शुरुआत मानी गई है। महाभारत में पुलस्त्य ने भीष्म को सूर्य वंश का विवरण बताते हुए कहा कि वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- 1.इल, 2.इक्ष्वाकु, 3.कुशनाम, 4.अरिष्ट, 5.धृष्ट, 6.नरिष्यन्त, 7.करुष, 8.महाबली, 9.शर्याति और 10.पृषध पुत्र थे। इक्ष्वाकु कुल : मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। राजा सगर के दो स्त्रियां थीं-प्रभा और भानुमति। प्रभा ने और्वाग्नि से साठ हजार पुत्र और भानुमति केवल एक पुत्र की प्राप्ति की जिसका नाम असमंजस था।

सृष्टि विकास ऋषि कश्यप

 सृष्टि विकास की बात करते हैं तो इसका मतलब है जीव, जंतु या मानव की उत्पत्ति से होता है। ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने बहुत-सी स्त्रीयों ...